Bengal Election 2021: People Of Bengal Chosen Mamata Didi Again – दीदी रे दीदी: बंगाली जनता की जबरदस्त ‘ममता’ 

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न्यूज डेस्क, अमर उजाला, नई दिल्ली
Published by: Amit Mandal
Updated Mon, 03 May 2021 07:33 AM IST

सार

देश में 2014 के बाद से बदले राजनीतिक परिदृश्य में कमजोर हुए विपक्ष को पश्चिम बंगाल जब-तब राजनीतिक ऑक्सीजन देता है। तृणमूल कांग्रेस की दमदार जीत ने एक बार फिर अलग-अलग पड़े कई दलों को एकजुटता का टीका देने का काम किया है।

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी
– फोटो : ANI

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कुछ वर्षों से हाशिए पर जाते क्षत्रपों के बीच ममता बनर्जी एक ऐसी नेता के तौर पर उभरी हैं जिन्होंने न सिर्फ ऐसे पुरुष-प्रधान राजनीति में धाक जमाई, बल्कि अपने दम पर केंद्र को सीधे चुनौती देती आई हैं। इस जीत के बाद तो यह भाजपा के खिलाफ ऐसा चमकीला तारा बन गई हैं जो विपक्ष के लिए बड़ी सियासी उम्मीद की किरण जगाता है।

महज 15 साल की उम्र में राजनीतिक सफर शुरू कर तमाम उतार-चढ़ाव देखने वाली दीदी ने अथक संघर्ष के बाद राजनीतिक विरासत खड़ी की। उनके शिक्षक भले ही उन्हें अंग्रेजी व गणित में कमजोर मानते थे, लेकिन राजनीति का एबीसीडी और गणित बिठाने में वह माहिर हैं। दीदी के उदय के पीछे बड़ा योगदान उनका जनजुड़ाव है। बंगाली जनता उन्हें नेता कम अभिभावक ज्यादा मानती है जो उनके लिए किसी से भी मिलने को तैयार है। यही वजह है, उन्हें ममता या सीएम नहीं, बल्कि दीदी कहकर बुलाता है।

2011 में जब उन्होंने परिवर्तन के नारे के साथ वाम को उखाड़ फेंका, तो उनके समर्थकों ने बंगाल की दूसरी आजादी करार दिया था। मां, माटी और मानुष का नारा देकर पहली दफा सत्ता में आने वाली दीदी के साथ बंगाल का पारिवारिक जुड़ाव-सा हो गया है। वह जन-जन तक यह बात पहुंचाने में कामयाब रही कि जो शोषण और उत्पीड़न उन्होंने दशकों तक झेला है, वह उनके रहते कभी नहीं होगा। यही वजह है कि भाजपा के शीर्ष नेता के विकास के असीम वादों के बावजूद बंगालियों ने दीदी का दामन थामे रखा।

शुरू से क्रांतिकारी छवि 
ममता ने छात्र जीवन से राजनीति में कदम रखा था। लेकिन, एक दशक से भी कम समय में वह बंगाल में बड़ा चेहरा बन गई थीं। 1977 में जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के दौरान उन्होंने सबका ध्यान खींचा राजीव गांधी की हत्या के सात साल बाद 1998 में कांग्रेस से अलग होकर तृणमूल कांग्रेस का गठन किया। खास बात यह है कि उनकी पार्टी का चिन्ह क्रांतिकारी बंगाली कवि काजी नजरुल इस्लाम के सांप्रदायिक सौहार्द पर आधारित कविता से प्रेरित है।

सोमनाथ दा को हराकर छोड़ी छाप
ममता का सक्रिय राजनीतिक सफर 1970 में बतौर कांग्रेस कार्यकर्ता शुरू हुआ था। 1979-80 तक वह बंगाल कांग्रेस (इंदिरा) की महासचिव रहीं। 1984 में जाधवपुर सीट से दिग्गज वाम नेता सोमनाथ चटर्जी को मात देकर पहली दफा राष्ट्रीय स्तर पर छाप छोड़ी। फिर 1987 में कांग्रेस राष्ट्रीय इकाई की ओर से 1988 में कार्यकारी समिति की सदस्य भी बनीं।

पुरुष-प्रधान राजनीति में अपने संघर्षों से धाक जमाने वाली नेता, मायावती, जयाललिता और सोनिया गांधी से अलग
एक प्रभावी और सफल राजनेता बनकर खड़ी दीदी के राजनीतिक सफर दोस्त-दुश्मन साफ है। संघर्ष से सियासत में जगह बनाने के कारण उनकी कहानी जयाललिता, मायावती और सोनिया गांधी से अलग है।

– वह इस समय देश में मोदी-शाह विरोध की मुखर आवाज है। वह हरेक राष्ट्रीय मुद्दे पर बेबाक राय रखती हैं। असम में उन्होंने भाजपा सरकार द्वारा नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) लागू करने का खुलकर विरोध किया।
– वहीं 2016 में नोटबंदी का विरोध करने वाली पहली राजनेता थीं। पीएम मोदी की स्वास्थ्य बीमा योजना लागू करने से साफ इंकार कर दिया था। 
 

विस्तार

कुछ वर्षों से हाशिए पर जाते क्षत्रपों के बीच ममता बनर्जी एक ऐसी नेता के तौर पर उभरी हैं जिन्होंने न सिर्फ ऐसे पुरुष-प्रधान राजनीति में धाक जमाई, बल्कि अपने दम पर केंद्र को सीधे चुनौती देती आई हैं। इस जीत के बाद तो यह भाजपा के खिलाफ ऐसा चमकीला तारा बन गई हैं जो विपक्ष के लिए बड़ी सियासी उम्मीद की किरण जगाता है।

महज 15 साल की उम्र में राजनीतिक सफर शुरू कर तमाम उतार-चढ़ाव देखने वाली दीदी ने अथक संघर्ष के बाद राजनीतिक विरासत खड़ी की। उनके शिक्षक भले ही उन्हें अंग्रेजी व गणित में कमजोर मानते थे, लेकिन राजनीति का एबीसीडी और गणित बिठाने में वह माहिर हैं। दीदी के उदय के पीछे बड़ा योगदान उनका जनजुड़ाव है। बंगाली जनता उन्हें नेता कम अभिभावक ज्यादा मानती है जो उनके लिए किसी से भी मिलने को तैयार है। यही वजह है, उन्हें ममता या सीएम नहीं, बल्कि दीदी कहकर बुलाता है।

2011 में जब उन्होंने परिवर्तन के नारे के साथ वाम को उखाड़ फेंका, तो उनके समर्थकों ने बंगाल की दूसरी आजादी करार दिया था। मां, माटी और मानुष का नारा देकर पहली दफा सत्ता में आने वाली दीदी के साथ बंगाल का पारिवारिक जुड़ाव-सा हो गया है। वह जन-जन तक यह बात पहुंचाने में कामयाब रही कि जो शोषण और उत्पीड़न उन्होंने दशकों तक झेला है, वह उनके रहते कभी नहीं होगा। यही वजह है कि भाजपा के शीर्ष नेता के विकास के असीम वादों के बावजूद बंगालियों ने दीदी का दामन थामे रखा।

शुरू से क्रांतिकारी छवि 

ममता ने छात्र जीवन से राजनीति में कदम रखा था। लेकिन, एक दशक से भी कम समय में वह बंगाल में बड़ा चेहरा बन गई थीं। 1977 में जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के दौरान उन्होंने सबका ध्यान खींचा राजीव गांधी की हत्या के सात साल बाद 1998 में कांग्रेस से अलग होकर तृणमूल कांग्रेस का गठन किया। खास बात यह है कि उनकी पार्टी का चिन्ह क्रांतिकारी बंगाली कवि काजी नजरुल इस्लाम के सांप्रदायिक सौहार्द पर आधारित कविता से प्रेरित है।

सोमनाथ दा को हराकर छोड़ी छाप

ममता का सक्रिय राजनीतिक सफर 1970 में बतौर कांग्रेस कार्यकर्ता शुरू हुआ था। 1979-80 तक वह बंगाल कांग्रेस (इंदिरा) की महासचिव रहीं। 1984 में जाधवपुर सीट से दिग्गज वाम नेता सोमनाथ चटर्जी को मात देकर पहली दफा राष्ट्रीय स्तर पर छाप छोड़ी। फिर 1987 में कांग्रेस राष्ट्रीय इकाई की ओर से 1988 में कार्यकारी समिति की सदस्य भी बनीं।

पुरुष-प्रधान राजनीति में अपने संघर्षों से धाक जमाने वाली नेता, मायावती, जयाललिता और सोनिया गांधी से अलग

एक प्रभावी और सफल राजनेता बनकर खड़ी दीदी के राजनीतिक सफर दोस्त-दुश्मन साफ है। संघर्ष से सियासत में जगह बनाने के कारण उनकी कहानी जयाललिता, मायावती और सोनिया गांधी से अलग है।

– वह इस समय देश में मोदी-शाह विरोध की मुखर आवाज है। वह हरेक राष्ट्रीय मुद्दे पर बेबाक राय रखती हैं। असम में उन्होंने भाजपा सरकार द्वारा नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) लागू करने का खुलकर विरोध किया।

– वहीं 2016 में नोटबंदी का विरोध करने वाली पहली राजनेता थीं। पीएम मोदी की स्वास्थ्य बीमा योजना लागू करने से साफ इंकार कर दिया था। 

 


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